Wednesday, July 1, 2009

वैयक्तिक चेतना की अभिव्यक्ति- `आधुनिक ययाति´

-डॉ. मीनूपुरी

वर्तमान युग वैज्ञानिक बैद्विक उन्मेष का युग हैं। विज्ञान तो पुरातन काल में भी था पर वर्तमान में मानव ने उसे एक निश्चित क्रियान्मक रूप दे दिया है। हमारे दैनिक क्रियाकलापों में जन्म से लेकर मरण तक हम विज्ञान के विभिन्न पक्षों से गुजरते हैं। वर्तमान में विज्ञान हमारे भांति-भांति प्रकार के कौतूहलों को तृप्त करने में सक्षम हो गया है। विज्ञान के अद्भुत प्रयोगों से प्राप्त चमत्कारिक गातिविधियों ने हमारे कवि लेखक व उपन्यासकारों की कल्पना को नई-नई संचेतनाएं दीं और उन्होंने अद्भुत रचनाओं का सृजन किया।
प्रसिध्द वैज्ञानिक आइस्टाइन की मान्यता है ''वैज्ञानिक आविष्कारों के बीज स्वत: स्फूरित क्षणों में अचानक एक विद्युत की कौंध की भांति वैज्ञानिक के मस्तिष्क में उद्भासित हुआ करते हैं। इस दृष्टि से कवि की काव्य चेतना और वैज्ञानिक की आविष्कार चेतना दोनों बहुत निकट हो जाती है।'' ऐसा ही कुछ हमें ''अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार'' से सम्माानित एवं ललित शैली में पहली वार लिखे डॉ. राजिव रंजन उपाध्याय के विज्ञान कथा संग्रह ''आधुनिक ययाति'' में अनुभव होता है।
प्रस्तुत संग्रह में डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय ने एक कवि व वैज्ञानिक दोनाें का समावेश कर नवीन ही रीति को जन्म दिया है। स्वयं की अनुभूति अर्थात आत्माभिव्यक्ति के वर्णन का स्त्रोत है 'आधुनिक ययाति'। प्रस्तुत संग्रह में वैयक्तिक चेतना की अभिव्यक्ति एक प्रमुख विशेषता बन कर आयी है। जहाँ डॉ. उपाध्याय ने एक ओर शुध्द वैज्ञानिकता के आधार पर ब्रह्माण्ड की स्थिति, जीवन की सम्भावनाओं आदि पर एक प्रश्न रेखांकित किया है वहीं दूसरी ओर पात्रों की भाव अनुभूतियों को साहित्यिक जामा पहना विभिन्न काव्य शौलियों का प्रयोग किया हैं। जहाँ एक ओर संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग (लावण्यमयी भारतीय भौतिकविद विषाशा का स्मरण्ा हो गया) वहीं दूसरी तरफ सूचना पैनेल का मानवीकरण किया गया है2 ( अपने कक्ष के सूचना पैनेल पर दृष्टिपात किया। वह अन्तरिक्ष की अनन्य शान्ति की भांति ही निश्चेष्ट था, मौन था) डॉ. राजीवरंजन उपाध्याय ने अपराजित2 कथा में वैज्ञानिक सम्मत दृष्टिकोण का अत्यन्त ही काव्यात्मक शैली में चित्रण किया है। वृष नक्षत्र तारा मण्डल के समीप एक अनाम ग्रह की खोज का वर्णन उस ग्रह की समता पृथ्वी से करना एवं मानव स्त्री युग्मों की कल्पना उनकी विस्तृत अनुभूति का द्योतक है। कथा नायिका कुर्निकोवा के मानस-पटल पर अनेकानेक स्मृतियाँ उद्भासित होती हैं- यथा ''तुम्हारे इन सुदीर्घ नयनों की गारिमा, सौन्दर्य तो नेत्र मध्य निहित कालिमा ही पदान करती है।....तुम साक्षात हिम धवला प्रतीत होती हो और फिर तुम तो जानती ही हो कि तुम्हें देखकर युवकगण क्या गाने लगते हैं.......उसके स्मृति पटल पर अपेक्षाकृत नवीन घटनाओं, क्रमों के बिम्ब उभरने लगे3।...''
एक वैज्ञानिक कथा में पूर्वदीप्ति शैली का अन्यंत ही मनोरम उदाहरण है।
वहीं ''अरुण वर्ण आलौकिक - आभामय'' संस्कृत निष्ठ सुबोध, उक्ति वैचित्र से पूर्ण अनुप्रसिक पदावली है। तो ''भ्रामरी जाप सम ध्वनि''4 में उपमा शैली का परिचय मिलता है। कथा में कथाकार की उर्वर कल्पना शक्ति का परिचय मिलता , जो एक संदेश भी लेकर आया है''। स्त्री नव पाषाण युग अर्थात विगत के 10-15 हजार वर्षों में कभी भी आज की भांति स्वतंत्र नहीं रही।
पर अब नारी की स्थिति में सामाजिक परिवेश में, परिर्वतन हुआ है। वह पुरुष के समकक्ष हो गयी है।
जहाँ एक ओर द्वापर युग में द्र्रौपदी चीर हरण का उदाहरण डॉ. उपाध्याय की विज्ञान कथा का ऐतिहासिक दृष्टिकोण है, वहीं धरा पर मानव जीवन के प्रादुर्भाव संबंधित विज्ञान सम्मत दाशर्निक चिंतन भी है। उदाहरण-''अंतरिक्ष यात्रा में कुर्निकोवा के मानस में मानव अस्तिव सबन्धी अनेक विचार चल चित्र की भाँति आते जा रहे थे। आकर्षण....नर नारी, का एक सामान्य जैव रसायनिक और मानवों में सृजन ....संतति सृजन का, उस आधार है। नर और नारी में सृजनात्मक प्रेरणा कारक सौंदर्य है, तथा इसी के प्रभाव के फलस्वरूप, अंतिम परिणति में जैव रसायनों हारमोनों ... नव जीवन की सृष्टि करता है।''5
'दूसरा नहुष' एक विज्ञान कथा होते हुए भी पूर्णरूप से संस्कृतनिष्ट उक्तियों में श्रंगारित व उपमाओं के रूप से स्निक्त एक अद्भुत कथा है। जिसमें एक तरफ मंगल ग्रह से प्राप्त उल्कापिण्ड की खोज व संरचना को दृष्टिपात किया है वहीं इन्जिनियर पुरंदर अपनी सहयात्री ओल्गा के सौंदर्य की स्निगधता चाहते हुए भी नहीं प्राप्त कर पाते व पूर्णरूपेण उसी तरह जैसे मानवेन्द्र नहुष शची के सान्निध्य की कामना में कामातुर हो ऋषियों द्वारा शाप-ग्रसित होकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं कथा नायक पुरंदर को भी अंतरिक्ष से धरा पर जाना पड़ता है।
कथा में अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा उल्का पिण्ड को टे्रप किया जाता है, उसका परीक्षण किया जाता है एवं एक जीवाणु प्रजाति की उपस्थिति सभी को आकृष्ट करती है। कथा में ऐतिहासिक उदाहरणों द्वारा तथ्य की स्थापित करने की डॉ. उपाध्याय जी की कला दृष्टिगत होती है। सुकवि भास्कराचार्य द्वितीय की 'लीलावती' की ''बाले बाल कुरंग लोलनमने ....है'' तो डॉ. उपाध्याय जी की 'ओल्गा तुम्हारे नेत्रों में वोदका सी मादकता है।' ''मंगल अंगार की भांति आभा उत्पन्न कर अपना अंगारक नाम सार्थक कर रहा था''
पंक्ति का वैचिŒय देखने योग्य है। पुरन्दर का ओल्गा को कथन-`तुम्हारा कक्ष में आना, इस क्षेत्र में आना विकसित पीत पुष्पों की पीतवणीZ आभा के साथ वंसत ऋतु के आगमन सा आह्लाददायी है, सुखद है।1´ गद्य में उपमा का उत्कृष्ट उदाहरण है। कथा संग्रह के नाम से मण्डित आधुनिक ययाति में कथा नायिका डॉ. प्रियवदा बनौषधि से एक तत्व को खोज निकालती है जिसे लेने के उपरान्त नर जाति में कामोत्तेजना तीव्र रूप से जाग्रत होती है, साथ ही एक दूसरी औषधि की खोज भी करती है जो रक्त के द्वारा मस्तिष्क के सेक्स संवेदनात्मक क्षेत्र के न्यूरानों को निष्क्रिय कर देती है। और सेक्स की संवेदना समाप्त हो जाती है। प्रियम्बदा को अपने काम लोलुप कथाकथित पति के साथ अपनी पुत्री केा विवाह संबन्ध में देखना पड़ रहा है। उसने अपनी पुत्री शिखा को कामभावना को शिथिल करनें वाला स्पे दिया, जिसके प्रयोग द्वारा शिखा को वास्तविकता का ज्ञान हुआ´ और डॉ. प्रियंनदा का संत्रास मुक्त मन अन्ंात आकाश में उल्लासित हो विचरण करने लगा करने लगा, ठीक उसी तरह जैसे प्रसाद जी की ``कामायनी´´ में जब समरसता की स्थिति आती है तो कवि कहते है-
समरस थे जड़ या चेतन। सुन्दर साकार बना था।।
चेतनता एक विलसती। आनन्द अखण्ड घना था।।
पूर्व दीप्ति शैली में पूर्ण जीवन चक्र की व्याख्या करना डॉ. उपाध्याय जी की वर्णन शैली की विशेषता है ``जैसे-जैसे उनके मानस पटल पर विगत झेली गयी बालिका प्रियंबदा की असहाय स्थिति, संत्रास और पीड़ा ..उस नर पशु की.....उस 70 वषीZय स्त्री देह भोगी लोलुप की......नव युवती से उद्दीपन प्राप्त करने की पौराणिक नृप ययाति की भांति कामातुर पशु का प्रयास ...उसकी तेज चलती साँसे और कुछ ही क्षणों में, मूछिZत सा उसका शान्त हो जाना।´´6
पूर्व दीप्ति शैली में पूर्व की घटी घटनाओं में `विगत के बिम्ब´ उक्ति का जहाँ-तहाँ अत्त्यंत सहजता से प्रयोग कर, वर्णन केा पाठक के समझने हेतु अत्यधिक सुलभ बना दिया है। `आधुनिक ययाति´ एक ऐसी वैज्ञानिक कथा है जिसमेें वैज्ञानिकता कथानक पर हावी नहीं हो पायी, और न कथानक विज्ञान से परे है। दोनों एक दूसरे में इस प्रकार एकीकार हैं मानो दोनों का समागम हो गया है। सम्पूर्ण कथा को पौैराणिक ययाति की कामुकता के बिम्ब लेकर बिर्णत किया गया है। जिसके द्वारा लेखक को ऐतिहासिक प्रेम व भारतीय पौराणिक संदर्भों के प्रति रुझान व लगाव दृष्टिगत होता है। यथा-
``उन्हें देखकर डॉ. प्रियबंदा के मन में पौराणिक नृप ययाति का स्मरण हो आया- वह भी तो अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से पुर्नयौवन प्राप्त करने के उपरान्त इन्हीं बन्दरों की भांति अपनी, उत्तेजना शान्त करने के लिए ....भोग के हेतु नारी की, स्त्री की, खोज करने लगा होगा...ठीक वैसे उस नर पशु की भाँति जिसने स्वत: डॉ. प्रियबंदा केा विवश कर दिया था।´´6
जिससे मानवता बची रहे कथा में वर्तमान की ज्वलंत समस्या आतंकवाद को उभारा गया है। साथ ही जैविक युद्ध से उत्पन्न भयावह स्थिति को भी प्रकट किया गया है। डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय ने एन्टोऐविओला वैिक्सन के निर्माण की कल्पना की जिससे जैविक युद्धों से मानवता को सुरक्षित रखा जा सके। प्रस्तुत कथा में विभिन्न स्थानों पर काव्यात्मक एवं िक्लष्ट शब्दावली युक्त साहित्यिक भाषा का प्रयोग मिलता है- यथा-´ इस अप्रिय, अमानवीय, अवंाछित दुष्कृत्य से सम्बन्धित समाचार को पढ़ने के प्रायश्चित स्वरूप डॉ. रजत प्रात: कालीन प्रथम चाय के आस्वादन का आनन्द न उठा सके। उसे उन्होंने तत्काल कंठ के नीचे उतार कर एकत्रित कटु औषधि की भांति उदरस्य कर लिया´´1
``युद्वोन्माद का विषाक्त दुर्दान्त दैत्य´´ उक्ति में उक्ति में युद्ध का मानवीकरण अत्यंत ही सरस प्रतीत होता है। `अंतरिक्ष दस्यु´´ नामक विज्ञान कथा अपराधिक वृत्ति से ग्रसित मनुष्यों की कथा है। साथ ही विज्ञान के असंतुलित प्रयोगों को भी रेखाकिंत किया गया है। डॉ. अलवर्ती वापस न आ सके - एक विशुद्ध ``हार्डZ कोर´´ विज्ञान कथा है, जो मानव के शरीर स्थानान्तरण की अवधारण को समझाती है। पूर्व दीप्ति शैली से सुसज्जित ``लोह भक्षी´´ कथा में कथाकार ने मंगल भास्कर सरोवर क्षेत्र सम्बंधित अनेकानेक सूचनाएँ तो पाठक केा प्रेषित करी हैं, साथ ही एक नवीन बेसिलस प्राजाति के माइक्रों बैक्टीरिया की कल्पना द्वारा कथा को सूत्रों में पिरोया है, जो लोहे तत्व का भोज्य करता है। ऐसे में उसने अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर की लाल कोशिकाओं को नष्ट कर उन्हें मृत्यु दे दी। विज्ञान कथा में बोझिलता के स्थान पर रोचकता को प्रवाहित करने हेतु डॉ. उपाध्याय ने अत्यंत ही सुबोध रूप में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया है- जब वे डॉ. सिसिल के रूप सौन्दर्य की तुलना ``मंगल´´ के जल से करते हैं- ``यथा डॉ. सिसिल लंबी छरहरी, नीली आँखों वाली जल विशेषज्ञा थीं उनकी नीली आँखों का स्मरण मंगल ग्रह पर जल का स्मरण है।´´7
`फोबोस विखंडित हो गया´ तकनीकी व शिल्पगत दृष्टि से पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। बिन्दु-दर-बिन्दु पाठक के मानस पटल पर फोबोस के विखण्डन के चित्र उभर जाते हैं कथाकार ने संकेत दिया है कि किस प्रकार मानवीय ़त्रुटि विनाश का मूक खेल, खेल जाती है। अत्यधिक ऊर्जा क्षरण के परिणामस्वरूप फोबोस उपग्रह विखण्डित हो गया।
`उस दुघZटना के बाद´ साहित्यिक एवं वैज्ञानिक दोनों परिप्रेक्षों को लेकर लिखी गयी है। जहाँ काव्यात्मक अलंकारिक व संस्कृतनिष्ट शब्दावली से ओत-प्रोत एक श्रंगारिक विज्ञान कथा है। जिसमें श्रंगार के दोनों पक्ष संयोग व वियोग दृष्टिगत होते है।
कथा का वैज्ञानिक पक्ष- एड्स के निजात हेतु औषधि की खोज करते हुए कथा नायिका उसी वाइरस से संक्रमित हो जाती है, पर नियमित व्यायाम, अपनी दृढ इच्छा व मानसिक शाक्ति, तथा जीने की उत्कृष्ट जिजीविषा के फलस्वरूप वह पूर्णत: स्वरूप हो जाती है।
कथा के प्रारम्भ में नायक डॉ. रसेल का नायिका लिजा से मिलन व उनके मनोभावों के विभिन्न पक्षों का अन्योक्ति रूप में वर्णन किया गया है, उसी रूप में जैसे रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ श्रंगारिक कवि ``बिहारी´´ ने अपनी ``सतसई´´ में नायक-नायिका के मिलन का वर्णन किया था भाव साम्य देखिए-
`कहत नटत रीझत खिजत, मिलन खिलन लजियात।
भरे भौन सी करत है, नयन ही सो बात।।´´ (बिहारी)
`वे मंत्र मुग्ध की भांति रुक गए चकित सेे स्तबध से, प्रयासरत हो गए थे मानसिक धरातल पर.....उनके सामने से चपल चंचल चपलता सी चली जा रही थी।´´8
कथाकार ने स्थान-स्थान पर अपने तर्क व विर्णत बात को समझाने हेतु ऐतिहासिक पात्रों का (वृहत्कथा, कादम्बनी,माधवानल, कामंकदला आदि। उदाहरण लिया है।
यथा-
`पेरिस का विश्वविख्यात प्रतिनिधि-ऐफिल टावर, जो सरिता सीन के तट पर स्थित है, इस रास रंग को, नृत्य की, बाद्यों की मदभरी मधुर ध्वनियों को स्थित, प्रज्ञ, तटस्थ, निरपेक्ष प्रत्यक्षदशीZ-कामारि शिव के प्रहरी की भांति देख रहा था।9
`उस पल के पूर्व´ एक मार्मिक, संवेदनशील, एवं हृदयविवारक विज्ञान कथा है, जो अंतरिक्ष यात्री `कल्पना चावला´ की स्मृति से जुड़ी है। अंतरिक्ष में असमथ कई दुघZटनाएँ घट जाती है, जिसका परिणाम होता है-
`के.सी. निश्चेष्ट थी....उसका चेहरा धूमिल हो गया था, जैसे घटना के प्रभाव ने उसके मानस में´ ममतामयी माँ के.सी.-कल्पना चावला के बिम्ब अंकित कर दिये हंों और उसका परोक्ष मेें कायान्तरण हो गया हो।´´9
कथा में भारतवासियों की एक प्रमुख विशेषता का उल्ल्ेाख किया है। ``सहज सहनशील और सभी से मैत्री भाव रखने वाली-भारतीय।´´9 ऐसी दुघZटनाओं के उपरान्त भी मानव अपनी खोजों की तरफ अग्रसर रहता है और सृष्टि के अनबूझे रहस्यों को भेदने का प्रयत्न करता रहता है।
``खून´´
कवि नीरज की पंक्तियाँ-
`जाति-पंाति से बड़ा धर्म है,
धर्म-ध्यान से बड़ा कर्म है।
कर्म काण्ड से बड़ा मर्म है,
मगर सभी से बड़ा यहाँ वह छोटा सा इंसान है,
अगर वह प्यार करें तो धरती स्वर्ग समान है।।
इसी भावना के ओत-प्रोत लिखी गयी कथा है ``खून´´ जिसमें कथाकार ने धार्मिक संकीर्णता एवं साम्प्रदायिक मोह जैसी ज्वलंत समस्या का अत्यंत ही हृदयग्राही चित्रण किया है।
मजहबी संकीर्णताओं को त्याग नायिका `नगमा´ को उसके पडौसी `जीवन´ द्वारा जीवनदान मिला।
प्रस्तुत कथा के द्वारा डॉ. उपाध्याय जी यह संदेश प्रवाहित करना चाहते है-``भारतीय संस्कृति का आधार भावनात्मक एकता है, किन्तु कई बार अनेक स्वार्थी लोग, भाषा भेद क्षेत्रीय मोह जातिवाद जैसी संकीर्ण भावनाओं को प्रबल करवा देते है, परिणामस्वरूप झगड़े, दंंगे, लड़ाईयाँ, मारधाड़, धर्मयुद्व, साम्प्रदायिक विषयुद्ध आदि फैलने लगते हैं। व्यक्ति डर, भय, मानसिक तनाव से घिर जाता है। साम्प्रदायिक आग फैलने लगती है। मानव-मानव के रक्त का प्यासा हो जाता है। नर-नारियों की हत्या होती है। मासूम लोग तबाह हो जाते है। दुकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को लूटा जाता है। जीवन्त नगर श्मशान की शांति में बदल जाता है।
क्या साम्प्रदायिक दंगे भारत माता पर भंयकर कलंक नहीं हैं?े
राष्ट्र की प्रगति के लिए बाधक नहीं है?
सुखी एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए अभिशाप नहीं है?
पर्यावरण असंतुलन, प्रदूषण एवं भूमण्डलीकरण जैसे विषयों को उद्घाटित करती है कथा `अंतिम जल प्लवन´। अपनी सुविधा हेतु मानव ने वैज्ञानिक देनों का गलत प्रयोग किया, फलत: जनसंख्या में अतिशय वृद्धि, धरा की वन संपदा का नाश, वनस्पतियों अतिशय दोहन, आदि से धरा को आवृत्त किए हुए ओजोन गैस का कवच प्रभावित हो कर नष्ट हो गया। अन्त में जो दृश्य उभरता है, वह है जल प्लवन का, साथ ही कथाकार ने संदेश दिया है कि ईवश्रीय प्रदेय वस्तुओं का उचित रूप से प्रयोग करने का रूप विज्ञान है।
विष्णु जैसा पालक है। शिव जैसा संहारक है।।
पूजा इसकी शुद्ध भाव से करो आजके आराधक ललित शैली में लिखा गया यह कथा संग्रह वैज्ञानिक साहित्य में रुचि लेने वाले पाठकों केा ही नहीं अपितु हर वर्ग के पाठकों को पसन्द आ रहा है प्रस्तुत कथा संग्रह में डॉ. राजिव रंजन उपाध्याय जी की विस्तुत कल्पना व उर्वर शक्ति एवं बौद्विक व तकनीकी दृष्टिकोण दृष्टिगत होता है। स्वयं को कथा का बिन्दु बनाकर अपने अनुभूति केा लेखन रूप में अभिव्यक्त करने की इनके क्षमता को नमन।

1. आधुनिक ययाति: डॉ.राजीव रंजन उपाध्याय, पृ.14 वेगा
2. आधुनिक ययाति: अपराजित पृष्ठ 20
3. आधुनिक ययाति: अपराजित पृष्ठ 21
4. आधुनिक ययाति: अपराजित पृष्ठ 23
5. आधुनिक ययाति: दूसरा नहुष, पृ. 28
6. आधुनिक ययाति: आधुनिक ययाति, पृ. 34, 36
7. आधुनिक ययाति: लौह भक्षी, पृ. 16
8. आधुनिक ययाति: उस दुघZटना के बाद, पृष्ठ 75,76
9. आधुनिक ययाति: उस पल के पूर्व, पृष्ठ 88,86